किधर का चाँद हुआ 'मेहर' के जो घर आए
तुम आज भूल पड़े किस तरफ़ किधर आए
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इश्क़-ए-जान-ए-जहाँ नसीब हुआ
करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस
गुल बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
गुलज़ार में फिर कोई गुल-ए-ताज़ा खिला क्या
ब-ख़ुदा हैं तिरी हिन्दू बुत-ए-मय-ख़्वार आँखें
न ज़क़न है वो न लब हैं न वो पिस्ताँ न वो क़द
क्या बुतों में है ख़ुदा जाने ब-क़ौल-ए-उस्ताद
नाला-ए-गर्म के और दम सर्द भरे क्या जिएँ हम तो मरे
मार डाला तिरी आँखों ने हमें
दरिया तूफ़ान बह रहा है
पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया
तिरी तलाश से बाक़ी कोई मकाँ न रहा