गुल बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
अपना भी इस चमन में कभी आशियाना था
Habib Jalib
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Gulzar
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पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया
तू ने वहदत को कर दिया कसरत
वो ज़ार हूँ कि सर पे गुलिस्ताँ उठा लिया
क्या बुतों में है ख़ुदा जाने ब-क़ौल-ए-उस्ताद
कूचा में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे
हम भी बातें बनाया करते हैं
रातों को बुत बग़ल में हैं क़ुरआँ तमाम दिन
बदन-ए-यार की बू-बास उड़ा लाए हवा
कोई ले कर ख़बर नहीं आता
गरेबाँ हाथ में है पाँव में सहरा का दामाँ है
आलम-ए-हैरत का देखो ये तमाशा एक और