रातों को बुत बग़ल में हैं क़ुरआँ तमाम दिन
हिन्दू तमाम शब हूँ मुसलमाँ तमाम दिन
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डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
तिरी तलाश से बाक़ी कोई मकाँ न रहा
दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ
पूछेगा जो वो रश्क-ए-क़मर हाल हमारा
गुल बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके
छोड़ेंगे गरेबाँ का न इक तार कभी हम
रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं
पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया
जवाँ रखती है मय देखे अजब तासीर पानी में
करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस