अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
आँख के लड़ने से पहले जी लड़ा बैठे हैं हम
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चैन पहलू में उसे सुब्ह नहीं शाम नहीं
दोपहर रात आ चुकी हीला-बहाना हो चुका
ज़बाँ से बात निकली और पराई हो गई सच है
हम 'मेहर' मोहब्बत से बहुत तंग हैं अब तो
वारिद कोह-ए-बयाबाँ जब में दीवाना हुआ
जो मेहंदी का बुटना मला कीजिएगा
करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस
सारी इज़्ज़त नौकरी से इस ज़माने में है 'मेहर'
कूचे में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे
ख़ूब-रूई पे है क्या नाज़ बुतान-ए-लंदन
मार डाला तिरी आँखों ने हमें
साक़ी है न मय है न दफ़-ओ-चंग है होली