ज़बाँ से बात निकली और पराई हो गई सच है
अबस अशआर को करते हैं हम तश्हीर पहले से
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ऐ 'मेहर' जो वाँ नक़ाब सर का
रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं
अजब है 'मेहर' से उस शोख़ की विसाल का वक़्त
याद में इक शोख़ पंजाबी के रोते हैं जो हम
पूछेगा जो वो रश्क-ए-क़मर हाल हमारा
ईज़ाएँ उठाए हुए दुख पाए हुए हैं
दोपहर रात आ चुकी हीला-बहाना हो चुका
बुतों का सामना है और मैं हूँ
सर झुकाता नहीं कभी शीशा
गुल बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
जन्नत की ने'मतों का मज़ा वाइ'ज़ों को हो