जन्नत की ने'मतों का मज़ा वाइ'ज़ों को हो
हम तो हैं महव लज़्ज़त-ए-बोस-ओ-कनार में
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सर झुकाता नहीं कभी शीशा
ईज़ाएँ उठाए हुए दुख पाए हुए हैं
याद में इक शोख़ पंजाबी के रोते हैं जो हम
गुल बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ
ज़ुल्फ़ अंधेर करने वाली है
बे-क़रारी रोज़-ओ-शब करने लगा
डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके
आफ़्ताब अब नहीं निकलने का
रातों को बुत बग़ल में हैं क़ुरआँ तमाम दिन
हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम