बे-क़रारी रोज़-ओ-शब करने लगा
'मेहर' अब तो दिल ग़ज़ब करने लगा
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खुल गया उन की मसीहाई का आलम शब-ए-वस्ल
ब-ख़ुदा हैं तिरी हिन्दू बुत-ए-मय-ख़्वार आँखें
दोनों उसी के बंदे हैं यकता है वो करीम
दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
गुल-बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
याद में इक शोख़ पंजाबी के रोते हैं जो हम
रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं
बदन-ए-यार की बू-बास उड़ा लाए हवा
ख़ूब-रूई पे है क्या नाज़ बुतान-ए-लंदन
गुज़रा अपना पस-ए-मुर्दन ही सही
उस का हाल-ए-कमर खुला हमदम