बोसे लेते हैं चश्म-ए-जानाँ के
हम हिरन का शिकार करते हैं
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Rahat Indori
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Gulzar
Allama Iqbal
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नाला-ए-गर्म के और दम सर्द भरे क्या जिएँ हम तो मरे
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा
अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
किस पर नहीं रही है इनायत हुज़ूर की
दोपहर रात आ चुकी हीला-बहाना हो चुका
बे-क़रारी रोज़-ओ-शब करने लगा
बुतों का सामना है और मैं हूँ
तू ने वहदत को कर दिया कसरत
ज़बाँ से बात निकली और पराई हो गई सच है
गुलज़ार में फिर कोई गुल-ए-ताज़ा खिला क्या
जन्नत की ने'मतों का मज़ा वाइ'ज़ों को हो
कोई ले कर ख़बर नहीं आता