हम 'मेहर' मोहब्बत से बहुत तंग हैं अब तो
रोकेंगे तबीअत को जो रुक जाए तो अच्छा
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जो मेहंदी का बुटना मला कीजिएगा
बुतों का सामना है और मैं हूँ
अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
बे-क़रारी रोज़-ओ-शब करने लगा
बदन-ए-यार की बू-बास उड़ा लाए हवा
जन्नत की ने'मतों का मज़ा वाइ'ज़ों को हो
फ़स्ल-ए-गुल आई तो क्या बे-सर-ओ-सामाँ हैं हम
सारी इज़्ज़त नौकरी से इस ज़माने में है 'मेहर'
काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ मुश्ताक़-ए-शहादत भी हूँ
रातों को बुत बग़ल में हैं क़ुरआँ तमाम दिन
नाला-ए-गर्म के और दम सर्द भरे क्या जिएँ हम तो मरे
दीदा-ए-जौहर से बीना हो गया