सारी इज़्ज़त नौकरी से इस ज़माने में है 'मेहर'
जब हुए बे-कार बस तौक़ीर आधी रह गई
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जवाँ रखती है मय देखे अजब तासीर पानी में
साक़ी है न मय है न दफ़-ओ-चंग है होली
गुल-बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
पुतली की एवज़ हूँ बुत-ए-राना-ए-बनारस
ऐन-ए-का'बा में है मस्तों की जगह
उस का हाल-ए-कमर खुला हमदम
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा
जो मेहंदी का बुटना मला कीजिएगा
क्या बुतों में है ख़ुदा जाने ब-क़ौल-ए-उस्ताद
कोई ले कर ख़बर नहीं आता
बुतों का ज़िक्र करो वाइज़ ख़ुदा को किस ने देखा है