ऐन-ए-का'बा में है मस्तों की जगह
कह रही हैं तह-ए-अबरू आँखें
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कूचा में जो उस शोख़-हसीं के न रहेंगे
अजब है 'मेहर' से उस शोख़ की विसाल का वक़्त
पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया
गुलज़ार में फिर कोई गुल-ए-ताज़ा खिला क्या
जवाँ रखती है मय देखे अजब तासीर पानी में
कोई ले कर ख़बर नहीं आता
वहदहू-ला-शरीक की है क़सम
हम से किनारा क्यूँ है तिरे मुब्तला हैं हम
ऐ 'मेहर' जो वाँ नक़ाब सर का
याद में इक शोख़ पंजाबी के रोते हैं जो हम
डुबोएगी बुतो ये जिस्म दरिया-बार पानी में
खुल गया उन की मसीहाई का आलम शब-ए-वस्ल