उतर के नीचे कभी मेरे साथ भी तो चलो
बुलंद खिड़कियों से कब तलक पुकारोगे
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इस का नहीं है ग़म कोई जाँ से अगर गुज़र गए
मिरे कलाम में पेचीदा इस्तिआ'रा नहीं
हज़ीं तुम अपनी कभी वज़्अ भी सँवारोगे
क्या गुल खिलाए देखिए तपती हुई हवा
जो पा लिया तुझे मैं ख़ुद को ढूँडने निकला
मिरे रियाज़ का आख़िर असर दिखाई दिया
आँसू को अपने दीदा-ए-तर से निकालना
इस का नहीं है ग़म कोई, जाँ से अगर गुज़र गए
हैरान सारा शहर था जिस की उड़ान पर
सर-ता-ब-क़दम ख़ून का जब ग़ाज़ा लगा है
नज़र न आई कभी फिर वो गाँव की गोरी