मैं सच तो बोलता हूँ मगर ऐ ख़ुदा-ए-हर्फ़
तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे
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कब तक रहूँ मैं ख़ौफ़-ज़दा अपने आप से
यम-ब-यम फैला हुआ है प्यास का सहरा यहाँ
इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए
हारून की आवाज़
मुद्दत के बाद
ये शहर-ए-रफ़ीक़ाँ है दिल-ए-ज़ार सँभल के
इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग
मैं सो रहा था और कोई बेदार मुझ में था
'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप