बैठे बैठे रस्ते निकल आते हैं
चलते चलते गुम जाते हैं
फिर कोई पेड़ निकल आता है
जिस के नीचे बैठ के हम
गुम रस्ते दोहराते हैं
लम्हा भर सुस्ताते हैं
Wasi Shah
Gulzar
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
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Parveen Shakir
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हर्कुलेस और पाटे-ख़ान की सर्कस
मैदान
ज़मीं का दम निकलता जा रहा है
भारी बस्ता
राहत ओ रंज से जुदा हो कर
खड्डियों पर बने लोग
रौशनी में खोई गई रौशनी
कभी वफ़ूर-ए-तमन्ना कभी मलामत ने
फिर कोई पेड़ नकुल आता है
ख़यालों ख़यालों में किस पार उतरे
साँस भर हवा