हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
हर किसी की नज़र नहीं होती
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हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे
उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा
यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
एक लड़का
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ
'मीर' से बैअत की है तो 'इंशा' मीर की बैअत भी है ज़रूर
सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह निकाली नहर
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर
हम जंगल के जोगी हम को एक जगह आराम कहाँ
सब माया है
देख हमारी दीद के कारन कैसा क़ाबिल-ए-दीद हुआ