इक ज़रा सी बात पे ये मुँह बनाना रूठना
इस तरह तो कोई अपनों से ख़फ़ा होता नहीं
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दिल में सज्दे किया करो 'मुफ़्ती'
याद का क्या है आ गई फिर से
दिल वही अश्क-बार रहता है
वो ख़्वाब जैसा था गोया सराब लगता था
ग़लत-फ़हमी की सरहद पार कर के
मकड़ी
हम से शायद मो'तबर ठहरी सबा
जिन पे नाज़ाँ थे ये ज़मीन ओ फ़लक
यूँ तो पत्थर बहुत से देखे हैं
नफ़रतें न अदावतें बाक़ी हैं
कैसा जादू है समझ आता नहीं
हम से मिलते थे सितारे आप के