फ़ुर्क़त क़ुबूल रश्क के सदमे नहीं क़ुबूल
क्या आएँ हम रक़ीब तेरी अंजुमन में है
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तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत
तमाम उम्र यूँ ही हो गई बसर अपनी
जुस्तुजू करनी हर इक अम्र में नादानी है
आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम
शुबह 'नासिख़' नहीं कुछ 'मीर' की उस्तादी में
है दिल-ए-सोज़ाँ में तूर उस की तजल्ली-गाह का
हो गया ज़र्द पड़ी जिस पे हसीनों की नज़र
कौन सा तन है कि मिस्ल-ए-रूह इस में तू नहीं
गो तू मिलता नहीं पर दिल के तक़ाज़े से हम
है मोहब्बत सब को उस के अबरू-ए-ख़मदार की
ख़्वाब ही में नज़र आ जाए शब-ए-हिज्र कहीं