गो तू मिलता नहीं पर दिल के तक़ाज़े से हम
रोज़ हो आते हैं सौ बार तिरे कूचे में
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आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम
रात दिन नाक़ूस कहते हैं ब-आवाज़-ए-बुलंद
आ गया जब से नज़र वो शोख़ हरजाई मुझे
दरिया-ए-हुस्न और भी दो हाथ बढ़ गया
रश्क से नाम नहीं लेते कि सुन ले न कोई
हो गए दफ़्न हज़ारों ही गुल-अंदाज़ इस में
जान हम तुझ पे दिया करते हैं
गया वो छोड़ कर रस्ते में मुझ को
कौन सा तन है कि मिस्ल-ए-रूह इस में तू नहीं
तमाम उम्र यूँ ही हो गई बसर अपनी
तकल्लुम ही फ़क़त है उस सनम का
रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं