हिर-फिर के दाएरे ही में रखता हूँ मैं क़दम
आई कहाँ से गर्दिश-ए-पर्कार पाँव में
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ऐ अजल एक दिन आख़िर तुझे आना है वले
करे जो हर क़दम पर एक नाला
वो नहीं भूलता जहाँ जाऊँ
आती जाती है जा-ब-जा बदली
जिस्म ऐसा घुल गया है मुझ मरीज़-ए-इश्क़ का
तकल्लुम ही फ़क़त है उस सनम का
आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम
कौन सा तन है कि मिस्ल-ए-रूह इस में तू नहीं
ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम
दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं
रश्क से नाम नहीं लेते कि सुन ले न कोई
दिल सियह है बाल हैं सब अपने पीरी में सफ़ेद