ऐ अजल एक दिन आख़िर तुझे आना है वले
आज आती शब-ए-फ़ुर्क़त में तो एहसाँ होता
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शुबह 'नासिख़' नहीं कुछ 'मीर' की उस्तादी में
सनम कूचा तिरा है और मैं हूँ
रात दिन नाक़ूस कहते हैं ब-आवाज़-ए-बुलंद
हो गए दफ़्न हज़ारों ही गुल-अंदाज़ इस में
कौन सा तन है कि मिस्ल-ए-रूह इस में तू नहीं
चैन दुनिया में ज़मीं से ता-फ़लक दम भर नहीं
तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत
फ़ुर्क़त क़ुबूल रश्क के सदमे नहीं क़ुबूल
तीन त्रिबेनी हैं दो आँखें मिरी
ऐन दानाई है 'नासिख़' इश्क़ में दीवानगी
तकल्लुम ही फ़क़त है उस सनम का
है दिल-ए-सोज़ाँ में तूर उस की तजल्ली-गाह का