तकल्लुम ही फ़क़त है उस सनम का
ख़ुदा की तरह गोया बे दहां है
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ऐन दानाई है 'नासिख़' इश्क़ में दीवानगी
हम मय-कशों को डर नहीं मरने का मोहतसिब
जुस्तुजू करनी हर इक अम्र में नादानी है
ज़ोर है गर्मी-ए-बाज़ार तिरे कूचे में
सनम कूचा तिरा है और मैं हूँ
तमाम उम्र यूँ ही हो गई बसर अपनी
दरिया-ए-हुस्न और भी दो हाथ बढ़ गया
ऐ अजल एक दिन आख़िर तुझे आना है वले
जिस्म ऐसा घुल गया है मुझ मरीज़-ए-इश्क़ का
ताज़गी है सुख़न-ए-कुहना में ये बाद-ए-वफ़ात
रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं