तमाम उम्र यूँ ही हो गई बसर अपनी
शब-ए-फ़िराक़ गई रोज़-ए-इंतिज़ार आया
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आ गया जब से नज़र वो शोख़ हरजाई मुझे
ज़ोर है गर्मी-ए-बाज़ार तिरे कूचे में
वो बेज़ार मुझ से हुआ ज़ार मैं हूँ
रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं
ताज़गी है सुख़न-ए-कुहना में ये बाद-ए-वफ़ात
ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम
रश्क से नाम नहीं लेते कि सुन ले न कोई
तकल्लुम ही फ़क़त है उस सनम का
तीन त्रिबेनी हैं दो आँखें मिरी
फ़ुर्क़त क़ुबूल रश्क के सदमे नहीं क़ुबूल
हैं अश्क मिरी आँखों में क़ुल्ज़ुम से ज़्यादा
गो तू मिलता नहीं पर दिल के तक़ाज़े से हम