रश्क से नाम नहीं लेते कि सुन ले न कोई
दिल ही दिल में उसे हम याद किया करते हैं
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शुबह 'नासिख़' नहीं कुछ 'मीर' की उस्तादी में
दरिया-ए-हुस्न और भी दो हाथ बढ़ गया
हैं अश्क मिरी आँखों में क़ुल्ज़ुम से ज़्यादा
दिल सियह है बाल हैं सब अपने पीरी में सफ़ेद
तकल्लुम ही फ़क़त है उस सनम का
हो गए दफ़्न हज़ारों ही गुल-अंदाज़ इस में
हम ज़ईफ़ों को कहाँ आमद ओ शुद की ताक़त
तू ने महजूर कर दिया हम को
ऐ अजल एक दिन आख़िर तुझे आना है वले
रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं
है दिल-ए-सोज़ाँ में तूर उस की तजल्ली-गाह का