दरिया-ए-हुस्न और भी दो हाथ बढ़ गया
अंगड़ाई उस ने नश्शे में ली जब उठा के हाथ
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जिस्म ऐसा घुल गया है मुझ मरीज़-ए-इश्क़ का
तमाम उम्र यूँ ही हो गई बसर अपनी
तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत
चैन दुनिया में ज़मीं से ता-फ़लक दम भर नहीं
हो गया ज़र्द पड़ी जिस पे हसीनों की नज़र
कौन सा तन है कि मिस्ल-ए-रूह इस में तू नहीं
ऐ अजल एक दिन आख़िर तुझे आना है वले
रश्क से नाम नहीं लेते कि सुन ले न कोई
फ़ुर्क़त क़ुबूल रश्क के सदमे नहीं क़ुबूल
यारों की हम से दिल-शिकनी हो सके कहाँ
ताज़गी है सुख़न-ए-कुहना में ये बाद-ए-वफ़ात