रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं
जिस सर-ज़मीं के हम हैं वहाँ आसमाँ नहीं
Allama Iqbal
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हो गया ज़र्द पड़ी जिस पे हसीनों की नज़र
है मोहब्बत सब को उस के अबरू-ए-ख़मदार की
करे जो हर क़दम पर एक नाला
तू ने महजूर कर दिया हम को
जान हम तुझ पे दिया करते हैं
हिर-फिर के दाएरे ही में रखता हूँ मैं क़दम
रात दिन नाक़ूस कहते हैं ब-आवाज़-ए-बुलंद
ऐ अजल एक दिन आख़िर तुझे आना है वले
तीन त्रिबेनी हैं दो आँखें मिरी
ख़्वाब ही में नज़र आ जाए शब-ए-हिज्र कहीं
जिस्म ऐसा घुल गया है मुझ मरीज़-ए-इश्क़ का
हम ज़ईफ़ों को कहाँ आमद ओ शुद की ताक़त