करे जो हर क़दम पर एक नाला
ज़माने में दिरा है और मैं हूँ
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है मोहब्बत सब को उस के अबरू-ए-ख़मदार की
चैन दुनिया में ज़मीं से ता-फ़लक दम भर नहीं
हो गया ज़र्द पड़ी जिस पे हसीनों की नज़र
हिर-फिर के दाएरे ही में रखता हूँ मैं क़दम
मिरा सीना है मशरिक़ आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-हिज्राँ का
ऐ अजल एक दिन आख़िर तुझे आना है वले
दरिया-ए-हुस्न और भी दो हाथ बढ़ गया
हो गए दफ़्न हज़ारों ही गुल-अंदाज़ इस में
ज़ोर है गर्मी-ए-बाज़ार तिरे कूचे में
आने में सदा देर लगाते ही रहे तुम
शुबह 'नासिख़' नहीं कुछ 'मीर' की उस्तादी में
तकल्लुम ही फ़क़त है उस सनम का