कुछ रोज़ अभी और है ये आइना-ख़ाना
कुछ रोज़ अभी और मैं हैरत में रहूँगा
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एक लम्हा लौट कर आया नहीं
ये मोहब्बत भी एक नेकी है
नींद से जागा हूँ तो बैठा सोचता हूँ
वो दिल जिस ने हमें रुस्वा किया था
ज़माना है बुरे हम-साए जैसा
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
नहीं मालूम ये क्या कर चुके हैं
आँख ने धोका खाया था या साया था
रास्ते जिस तरफ़ बुलाते हैं
ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर