ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर
क्या जानिए कब तक इसी हालत में रहूँगा
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हमें तो इंतिज़ारी और ही थी
जिस रोज़ तिरे हिज्र से फ़ुर्सत में रहूँगा
जिए गरचे इसी दुनिया में हम भी
कुछ रोज़ अभी और है ये आइना-ख़ाना
बुझ जाएगा इक रोज़ तिरी याद का शोला
वो दिल जिस ने हमें रुस्वा किया था
दिल पर किसी पत्थर का निशाँ यूँ ही रहेगा
कोई बाग़ सा सजा हुआ मिरे सामने
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
ये मंज़र बे-दर-ओ-दीवार होता
एक लम्हा लौट कर आया नहीं