बुझ जाएगा इक रोज़ तिरी याद का शोला
लेकिन मिरे सीने में धुआँ यूँ ही रहेगा
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पुकारते थे मुझे आसमाँ मगर मैं ने
वो दिल जिस ने हमें रुस्वा किया था
जिस रोज़ तिरे हिज्र से फ़ुर्सत में रहूँगा
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
ज़मीं बिछाई यहाँ आसमाँ बुलंद किया
ज़माना है बुरे हम-साए जैसा
कोई बाग़ सा सजा हुआ मिरे सामने
कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर
एक लम्हा लौट कर आया नहीं