दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो
अंदर से कभी देखो कैसा नज़र आता है
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कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
नींद से जागा हूँ तो बैठा सोचता हूँ
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
एक लम्हा लौट कर आया नहीं
आँख ने धोका खाया था या साया था
दिल पर किसी पत्थर का निशाँ यूँ ही रहेगा
कुछ रोज़ अभी और है ये आइना-ख़ाना
पड़ता था इस ख़याल का साया यहीं कहीं
ख़ुद अपने उजाले से ओझल रहा है दिया जल रहा है
ये मोहब्बत भी एक नेकी है
ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर
बुझ जाएगा इक रोज़ तिरी याद का शोला