एक लम्हा लौट कर आया नहीं
ये बरस भी राएगाँ रुख़्सत हुआ
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नींद से जागा हूँ तो बैठा सोचता हूँ
हमें तो इंतिज़ारी और ही थी
ज़माना है बुरे हम-साए जैसा
जिए गरचे इसी दुनिया में हम भी
जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
आँख ने धोका खाया था या साया था
जिस रोज़ तिरे हिज्र से फ़ुर्सत में रहूँगा
ज़मीं बिछाई यहाँ आसमाँ बुलंद किया
पड़ता था इस ख़याल का साया यहीं कहीं
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
कोई बाग़ सा सजा हुआ मिरे सामने
ये मंज़र बे-दर-ओ-दीवार होता