ज़माना है बुरे हम-साए जैसा
सो हम-साए से झगड़ा कर चुके हैं
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जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर
वो दिल जिस ने हमें रुस्वा किया था
कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
रास्ते जिस तरफ़ बुलाते हैं
जिस रोज़ तिरे हिज्र से फ़ुर्सत में रहूँगा
नींद से जागा हूँ तो बैठा सोचता हूँ
ये मोहब्बत भी एक नेकी है
पुकारते थे मुझे आसमाँ मगर मैं ने
ज़मीं बिछाई यहाँ आसमाँ बुलंद किया
नहीं मालूम ये क्या कर चुके हैं