पुकारते थे मुझे आसमाँ मगर मैं ने
क़याम करने को ये ख़ाक-दाँ पसंद किया
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अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
हमें तो इंतिज़ारी और ही थी
ये मंज़र बे-दर-ओ-दीवार होता
कुछ रोज़ अभी और है ये आइना-ख़ाना
दिल पर किसी पत्थर का निशाँ यूँ ही रहेगा
दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो
जिए गरचे इसी दुनिया में हम भी
कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर
नींद से जागा हूँ तो बैठा सोचता हूँ
कोई बाग़ सा सजा हुआ मिरे सामने