कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
उसी गर्द में था अटा हुआ मिरे सामने
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ज़माना है बुरे हम-साए जैसा
एक लम्हा लौट कर आया नहीं
हम ठहरे रहेंगे किसी ताबीर को थामे
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
कोई बाग़ सा सजा हुआ मिरे सामने
दिल पर किसी पत्थर का निशाँ यूँ ही रहेगा
पुकारते थे मुझे आसमाँ मगर मैं ने
कुछ रोज़ अभी और है ये आइना-ख़ाना
आँख ने धोका खाया था या साया था
जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
नींद से जागा हूँ तो बैठा सोचता हूँ