जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
तो कोई दूसरा आज़ार होता
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जिस रोज़ तिरे हिज्र से फ़ुर्सत में रहूँगा
ज़मीं बिछाई यहाँ आसमाँ बुलंद किया
पड़ता था इस ख़याल का साया यहीं कहीं
कुछ रोज़ अभी और है ये आइना-ख़ाना
बुझ जाएगा इक रोज़ तिरी याद का शोला
नहीं मालूम ये क्या कर चुके हैं
ख़ुद अपने उजाले से ओझल रहा है दिया जल रहा है
कोई बाग़ सा सजा हुआ मिरे सामने
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
हमें तो इंतिज़ारी और ही थी
रास्ते जिस तरफ़ बुलाते हैं