ये मोहब्बत भी एक नेकी है
इस को दरिया में डाल आते हैं
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ये मंज़र बे-दर-ओ-दीवार होता
हम ठहरे रहेंगे किसी ताबीर को थामे
जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
बुझ जाएगा इक रोज़ तिरी याद का शोला
हमें तो इंतिज़ारी और ही थी
अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
ज़माना है बुरे हम-साए जैसा
आँख ने धोका खाया था या साया था
ख़ुद अपने उजाले से ओझल रहा है दिया जल रहा है
जिस रोज़ तिरे हिज्र से फ़ुर्सत में रहूँगा
दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो