क़ौस-ए-क़ुज़ह
जो साहिब-ए-मक्रमत थे और दानिश-मंद
अल-हक़ कि नहीं है ग़ैर हरगिज़ मौजूद
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
होती नहीं फ़िक्र से कोई अफ़्ज़ाइश
मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
हम आलम-ए-ख़्वाब में हैं या हम हैं ख़्वाब
हवा और सूरज का मुक़ाबला
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
जो तेज़ क़दम थे वो गए दूर निकल
तेज़ी नहीं मिनजुमला-ए-औसाफ़-ए-कमाल
हक़ है तो कहाँ है फिर मजाल-ए-बातिल