बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
यूँ सुस्त पड़े पड़े न हिम्मत हारो
बरसात की फ़स्ल में है वर्ज़िश लाज़िम
कुछ भी न करो तो मक्खियाँ ही मारो
Faiz Ahmad Faiz
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इसराफ़ से एहतिराज़ अगर फ़रमाते
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
जिस दर्जा हो मुश्किलात की तुग़्यानी
रात
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
इंसाँ को चाहिए न हिम्मत हारे
ये मसअला-ए-दक़ीक़ सुनिए हम से
तक़रीर से वो फ़ुज़ूँ बयान से बाहर
पानी में है आग का लगाना दुश्वार
होती नहीं फ़िक्र से कोई अफ़्ज़ाइश
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
एक वक़्त में एक काम