इसराफ़ से एहतिराज़ अगर फ़रमाते
क्यूँ गर्दिश-ए-अय्याम की सैली खाते
अंगुश्त-नुमा थी कज-कुलाही जिन की
वो फिरते हैं आज जूतियाँ चटख़ाते
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थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
तौहीद की राह में है वीराना-ए-सख़्त
इख़्फ़ा के लिए है इस क़दर जोश-ओ-ख़रोश
एक वक़्त में एक काम
चक्खी भी है तू ने दुर्द-ए-जाम-ए-तौहीद
है शुक्र दुरुस्त और शिकायत ज़ेबा
किस तौर से किस तरह से क्यूँ कर पाया
क़ल्लाश है क़ौम तो पढ़ेगी क्यूँकर
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
दीन और दुनिया का तफ़रक़ा है मोहमल
गर रूह न पाबंद-ए-तअ'य्युन होती
हवा और सूरज का मुक़ाबला