जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
तो माह-ए-शब चार-दहम गहनाया
अल्लाह की ज़ात है तग़य्युर से बरी
शम्स और क़मर का है फ़रो तर पाया
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गर रूह न पाबंद-ए-तअ'य्युन होती
करता हूँ सदा मैं अपनी शानें तब्दील
जो चाहिए वो तो है अज़ल से मौजूद
रात
जो साहिब-ए-मक्रमत थे और दानिश-मंद
चक्खी भी है तू ने दुर्द-ए-जाम-ए-तौहीद
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
ढूँडा करे कोई लाख क्या मिलता है
तक़रीर से वो फ़ुज़ूँ बयान से बाहर
ईद-ए-रमज़ाँ है आज बा-ऐश-ओ-सुरूर
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है