करता हूँ सदा में अपनी शानें तब्दील
तूफ़ान में था नूह तो आतिश में ख़लील
फ़िलहाल हूँ ज़ाहिर में अगर इस्माईल
हूँ आलम-ए-बातिन में वही रब्ब-ए-जलील
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ख़ाक नमनाक और ताबिंदा नुजूम
काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
ईद-ए-रमज़ाँ है आज बा-ऐश-ओ-सुरूर
गर रूह न पाबंद-ए-तअ'य्युन होती
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
आया हूँ मैं जानिब-ए-अदम हस्ती से
इख़्फ़ा के लिए है इस क़दर जोश-ओ-ख़रोश
बरसात
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
बंदा हूँ तो इक ख़ुदा बनाऊँ अपना
मकशूफ़ हुआ कि दीद हैरानी है
हक़ है तो कहाँ है फिर मजाल-ए-बातिल