आया हूँ मैं जानिब-ए-अदम हस्ती से
पैदा है बुलंद-पाएगी पस्ती से
इज्ज़ अपना ब-ज़ोर कर रहा हूँ साबित
मजबूर हुआ हूँ मैं ज़बरदस्ती से
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सच कहो
अफ़्सुर्दगी और गर्म-जोशी भी ग़लत
पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी
वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
है शुक्र दुरुस्त और शिकायत ज़ेबा
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
इंकार न इक़रार न तस्दीक़ न ईजाब
क्या कहते हैं इस में मुफ़्तियान-ए-इस्लाम
जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
ईद-ए-क़ुर्बां है आज ऐ अहल-ए-हमम
बा-ईं हमा-सादगी है पुरकारी भी
फ़ितरत के मुताबिक़ अगर इंसाँ ले काम