अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
फ़ासिद हुए क़ाएदे तो बिगड़े मा'मूल
है ईद मोहज़्ज़ब न मोहर्रम माक़ूल
हँसना महमूद है न रोना मक़्बूल
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तेज़ी नहीं मिनजुमला-ए-औसाफ़-ए-कमाल
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
छोटे काम का बड़ा नतीजा
बदला नहीं कोई भेस नाचारी से
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
करता हूँ सदा मैं अपनी शानें तब्दील
फ़ितरत के मुताबिक़ अगर इंसाँ ले काम
ढूँडा करे कोई लाख क्या मिलता है
हवा और सूरज का मुक़ाबला
दुनिया के लिए हैं सब हमारे धंदे
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार