अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
डेढ़ ईंट की मस्जिदें बनाते हैं बहुत
हर चंद कि हैं दाँत निहायत हमदर्द
लेकिन जब हिल गए सताते हैं बहुत
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
Javed Akhtar
Rahat Indori
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
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था रंग-ए-बहार बे-नवाई कि न था
सच कहो
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
इंकार न इक़रार न तस्दीक़ न ईजाब
फ़ितरत के मुताबिक़ अगर इंसाँ ले काम
मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
जो चाहिए वो तो है अज़ल से मौजूद
बुरहान-ओ-दलील ऐन गुमराही है
जो साहिब-ए-मक्रमत थे और दानिश-मंद
हम आलम-ए-ख़्वाब में हैं या हम हैं ख़्वाब
दुनिया का न खा फ़रेब वीराँ है ये
पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी