मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
गुंजाइश-ए-इल्म है बयाँ है न ख़बर
इल्म और मा'लूम में दुई की बू है
इस वास्ते इल्म है हिजाब-उल-अकबर
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हक़ है तो कहाँ है फिर मजाल-ए-बातिल
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
आजिज़ है ख़याल और तफ़क्कुर-ए-हैराँ
जो साहिब-ए-मक्रमत थे और दानिश-मंद
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
इंकार न इक़रार न तस्दीक़ न ईजाब
था रंग-ए-बहार बे-नवाई कि न था
शैतान करता है कब किसी को गुमराह
हक़्क़ा कि बुलंद है मक़ाम-ए-अकबर
ये मसअला-ए-दक़ीक़ सुनिए हम से
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
हर ख़्वाहिश-ओ-अर्ज़-ओ-इल्तिजा से तौबा