जिस दर्जा हो मुश्किलात की तुग़्यानी
हो अहल हम को और भी आसानी
तैराक अपना हुनर दिखाता है ख़ूब
होता है जब उस के सर से ऊँचा पानी
Faiz Ahmad Faiz
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जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
ईद-ए-क़ुर्बां है आज ऐ अहल-ए-हमम
दर-अस्ल कहाँ है इख़्तिलाफ़-ए-अहवाल
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
क़ौस-ए-क़ुज़ह
वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
अफ़्सुर्दगी और गर्म-जोशी भी ग़लत
दुनिया के लिए हैं सब हमारे धंदे
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
चौपाए की तरह तू किताबों से न लद