छोटे काम का बड़ा नतीजा
साक़ी ओ शराब ओ जाम ओ पैमाना क्या
दुनिया का न खा फ़रेब वीराँ है ये
अल-हक़ कि नहीं है ग़ैर हरगिज़ मौजूद
हक़ है तो कहाँ है फिर मजाल-ए-बातिल
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
इंकार न इक़रार न तस्दीक़ न ईजाब
ढूँडा करे कोई लाख क्या मिलता है
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
हर ख़्वाहिश-ओ-अर्ज़-ओ-इल्तिजा से तौबा
कहते हैं जो अहल-ए-अक़्ल हैं दूर-अंदेश
रात