मैं ज़ेर-ए-लब अपना शजरा-ए-नसब दोहरा रहा था
मैं ने बाग़ की जानिब पीठ कर ली
वो हातिफ़ की ज़बान में कलाम करने लगी
असातीरी नज़्म
बादशाह तेरी दहलीज़ का दरबान है
ज़मीन सिमट कर मेरे तलवे से आ लगी
मैं ने अपना वजूद गठड़ी में बाँध लिया
शहर की गलियाँ चराग़ों से भर गईं