हर लहज़ा इधर और उधर देख लिया
सदियों मैं हवस-ख़ाना-ए-हस्ती में रहा
कहते हैं 'रज़ा' कभी कहीं पहुँचा है
मैं कौन यक़ीन-ए-बद-गुमानी हूँ मैं
ले डूबेगी ख़ामोशी कोई दम हँस-बोल
फ़ानी न कहो होता है कम इस का वक़ार