दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
न समझा गया अब्र क्या देख कर
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली